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कविता

स्वप्न-शेष

भवानीप्रसाद मिश्र


सपनों का क्या करो
कहाँ तक मरो
इनके पीछे

कहाँ-कहाँ तक
खिंचो
इनके खींचे

कई बार लगता है
लो
यह आ गया हाथ में

आँख खोलता हूँ
तो बदल जाता है दिन
रात में !

 


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